अभी इस ब्‍लॉग में कविता लता (काव्‍य संग्रह)प्रकाशित है, हम धीरे धीरे शील जी की अन्‍य रचनायें यहॉं प्रस्‍तुत करने का प्रयास करेंगें.

कवि -कथा

समाज और साहित्य अथवा साहित्य और समाज ये समानांतर रेखायें हैं जिन पर कवि का कल्प्नायान सतत गतिशील रहता है।

अपने हजारों सालों के इतिहास में हमारी सभ्यता, परम्परा, राति-रिवाज और संस्कृति के अन्यान्य तत्व चाहे जितने बदले हों लेकिन मनुष्य आज भी अपने मूल रूप में वहीं हैं। उसकी प्रवृत्तियॉं ईर्ष्या-द्वेष, घृणा-प्रेम, क्रोध-अहंकार सब ज्यों के त्यों हैं, बाह्य आवरण उसकी मूल भूत चेतना को आच्छन्न नहीं कर सकता अतः कबीर, तुलसी से लेकर पंत, प्रसाद, निराला अज्ञेय, मुक्तिबोध जैसे कवि किसी न किसी रूप में जीवित रहेंगे, उनकी प्रासंगिकता भी विद्यमान हैं और रहेगी।

प्रासंगिकता की इसी श्रृंखला की कड़ी हैं स्व.  शेषनाथ शर्मा ‘शील’। इनकी रचना का संबंध भी मनुष्य के मूल अस्तित्व से है, उसकी चेतना से है, अस्तित्व की रक्षा से है, संर्घष से है, जिजीविषा से है तो दूसरी ओर आध्यात्म का स्वर भी मुखरित है, भारतीय दर्षन का अनंद प्रस्फुटित है। हिन्दी साहित्य के द्विवेदी कालीन साहित्यकार के रूप में इनकी गणना की जाती है।

जाज्वल्य देव प्रथम की ऐतिहासिक नगरी जांजगीर अविभाजित मध्यप्रदेश, आज के छत्तीसगढ़ में शील जी का जन्म 14 जनवरी 1914 को हुआ था पौषशुक्ल द्वादशी तिथि थी। इनके पिता धर्म प्राण साहित्यकार एवं विद्वान स्व. कुंजबिहारी लाल दुबे थे माता का नाम स्व. पार्वती दुबे था।

तेरह वर्ष की उम्र में शीलजी मातृविहीन हो गये, कोमल मन पर प्रथम आघात था, कविता का जन्म तभी हुआ। पिता आध्यात्म पथ के पथिक तो थे ही क्रमशः गृहस्थी के प्रति उदासीन होते चले गये, परिणाम स्वरूप शीलजी को शालेय शिक्षा हिन्दी सातवी तक ही प्राप्त हो सकी और वे उदर भरण की चिन्ता में डूब गये स्व. भास्करराव मेढ़ेकर वकील के यहॉं मुंशी बन गये, यही उनकी आजीविका का साधन था।

सन् 1966 में नेत्र ज्योति मंद पड़ने लगी, सरोजनी नायडू नेत्र चिकित्सालय आगरा में दो महीने तक भरती रहे पर विधि का विधान अमोध होता है, शेष जीवन अंधेरे से जूझते बीता, वे दृष्टिहीन हो गये।

साहित्य साधना में व्याघात उत्पन्न हुआ, साधक अंर्तमुखी हो गया। यह काल शील जी के लिये बड़ा ही पीड़ादायक था क्योंकि हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू, बंगला, संस्कृत एवं मराठी साहित्य का अध्येता अध्ययन से वंचित हो गया। उनकी दशा मणिहीन फणिधर सी हो गई थी।

वे सन् 1935 के काव्य कलाधर के सहयोगी सम्पादक रहे, शील जी की रचनायें तत्कालीन पत्र पत्रिकाओं में अनवरत् प्रकाशित होती रही थी।

नवंबर 1935 के ‘संगीत’ पत्रिका में प्रकाशित ‘‘हौ एक बात नई सुनि आई’’ की स्परलिपि राग-देश पर आधारित थी, जो हमें स्मरण दिलाती है कि वे कवि के साथ ही संगीतकार भी थे।

बांसुरी बजाने में वे सिद्ध हस्त थे, एक साथ दो बांसुरी बजाने में वे प्रवीण थे, तो हारमोनियम पर ‘‘बरू ये बदराउबरसन आये’’ गाकर श्रोताओं की मंत्रमुग्ध कर देते थे। सुरीले कण्ठ से निकला आत्मनिवेदन ‘‘प्रभु मेरे अवगुन चित न धरो’’। अथवा ‘‘मोरे लाज तुम्हारे ही हाथ रे सांवरे गिरधारी।’’ हो अथवा संत तुकाराम का अभंग ‘‘आलो, आलो गुनतू माया - गुनतू माया. . . ।’’ संगीत समारोहों का श्रंगार करते थे।

रविन्द्र संगीत में शील जी के प्राण बसते थे तो प्रसाद की ‘‘बीती विभावरी जाग री. . . . ।’’ और निराला के ‘‘बांधो न नांव इस ठांव बंधु, पूछेगा सारा गांव बंधु।’’ का गायन शील जी की पहचान बन गया था।

ज्योतिष का ज्ञान उन्हें व्यप्ति था पर भविष्य कथन करके अर्थोपार्जन उनकी रूचि के अनुकूल नहीं था। विशेष कर प्रश्न कुण्डली बना कर जातक की समस्याओं का समाधान वे निःशुल्क ही करते रहे। शीलजी की प्रारंभिक कविताये छायावादी हैं।

जिनमें प्रसाद एवं निराला का प्रभाव स्पष्ट हैं गेय कवितायें हैं जिनकी भाषा शुद्ध संस्कृति-मयी कोमल कान्त है बंगला की मिठास ने कविताओं की और भी रसमयी बना दिया है। रसानुभूति, रहस्यानुभूति से मिलकर अद्वैत साधना का मार्ग प्रशस्त करती है।

 ‘‘शरद की विभावरी’’ इसका उदाहरण है। शील जी द्वैत को जागृत रखना चाहते हैं ‘‘जहां न चंद्र सूर्य हो, परन्तु भ्रम न पल सकें।’’

साधना का पथ अंधकार पूर्ण न हो अतः कवि अपनी प्राण वर्तिका जलाये रखना चाहता है ताकि दूसरों को प्रकाश मिले, सुख मिले, अंधेरे से मुक्ति मिले। ‘‘मैं जलूं जला करूँ , तुम सुखी रहो लो संभाल कर रखो, वसन केक तले। प्राण ! यह जले, दीप यह जले।’’
कवि ने जड़ से दुलार पाया है, जिसने चेतन की निर्ममता पर लेप लगा दिया है।

‘‘चेतन जग ने कब ऐसा
मीठा व्यवहार किया है,
जड़ प्रकृति इसी से प्रिय है
निज सुख का भाग दिया है।’’

मनुष्य के जीवन का अभाव, दुख, विषमता, हिंसा, असत्य आदि शील जी के कवि मानस को क्षुब्ध करता है पर अंमा का अंधेरा घना है दीप ने भी लजाकर साथ छोड़ दिया है। खिन्न होकर वे लिखते हैं

‘‘कई आस्थायें बनी और बिगड़ी
विचारक नई पोथियां सी रहा है।
विषता अभावादि से त्रस्त मानव
सुधा चाहता था, गरल पी रहा है।
दुखी हूँ  कि मेरा अनुभूमियॉं जागती हैं
विवश हूँ  कि मेरा मनुज जी रहा हैं।
गलत राह कोई नहीं धर सकूंगा
कि जीना मना है, मरण भी मना है।
अभी भी अमां का अंधेरा घना है।

प्रगतिवाद की पदचाप सुनाई पड़ने लगी थी यह परिवर्तन उनके साहित्य में उनकी रचना में जिस तरह व्यक्त हुआ हैं वह ‘मिल’ नामक कविता में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है

‘‘दुखी जन की हड्डी से
भूखे श्रमिकों के शोणित से 
पैसों का इतिहास लिखा है
मिल की ऊँची दीवारों पर. . . ।
मिल सजीव मृत मजदूरो की
एक धधकती हुई चिता है। 
व्यथित शरीर व्यथित मन लेकर
मिल मालिक की ठोकर खाता
जग की कटु प्रताड़ना सहकर
जीता है मजदूर अभागा।

युग की पुकार ने शील जी को भी विचलित किया हिंसा, अपहरण रक्तपात राजनीति की बेढंगी चाल, पूंजीपतियों का बढ़ता जाल, वोटों की राजनीति की शिकार भोली ग्रामीण जनता, आखिर भगवान् है कहॉं ? मंदिरों में तो पत्थर की मूर्ति है जो बोल नहीं सकती, कवि ने उसी से प्रश्न किया ?

‘‘ओ पत्थर के भगवान बोल।
यह छिप कर हिंसा कपट पाश
कमजोरो का होता विनाश
क्यों तेरे जग का करें नाश
प्रतिकार-हीन भगवान बोल’’

आक्रोश का मुखर स्वर मंद नहीं हुआ ‘‘तीन डाकू’’ शीर्षक कविता समाज के तथा कथित ठेकदारो, नेता, पंडित और गुण्डे को समाज धर्मी चित्रित करता है जिनके हाथ जनता का सर्वस्व छीना जा रहा है, मजे की बात ये है कि वही ‘गुण्डा’ हृदय परिवर्तन का दृश्य दिखाता है चमचे की हत्या कर देता है।

‘‘मुझे भले ही होवे फांसी
अब जनता सुख से सोवेगी।’’

पड़ोसी देश का बार-बार आक्रमण शील जी को नागवार गुजरता है, अहिंसा और क्षमाशीलता को ललकारते हैं इ न शब्दों में

‘‘भाई था यह कभी
हिस्से में राज्य दिया, कोष दिया
सेना दी, आज वही सांप है।
लहराता लपक रहा पैरो की ओर।’’

शील जी का उत्तर जीवन अर्थाभाव में बीता, शरीर जर्जर हो चला था अंततोगत्वा 7 अक्टूबर 1997 कोशारदीय नवरात्रि की षष्ठी तिथि थी पं. शेषनाथ शर्मा ‘शील’ का देहावसान हो गया। सादी चादर को रंग मिल गया, जड़ को अधिकार भी मिल गया।
शील जी की अप्रकाशित रचनाये इस संकलन में संग्रहित की गई है जो उनके साहित्य भंडार का एक अंश मात्र है।

शेष प्रश्न कवि की लेखनी से
‘‘जीवन पर भाषण बहुत सुने
पर मरण पर न बोला कोई
मुकुलित सुमनों को प्यार मिला
कब झरने पर रोया कोई ?’’
कुछ मौन प्रश्न के उत्तर हैं
जिनको अब तक न मिली भाषा,
मीठी कड़वी कुछ यादें हैं
कवितायें कसक भरी सोई।

बिलासपुर के वरिष्ठ साहित्यकार श्याम लाल चतुर्वेदी ने शील जी को कविगुरू कहा है। 12 फरवरी  1996 में कोरबा में आयोजित एक समारोह में इन्होंने शील जी के साहित्यिक अवदान को ध्यान में रखकर उन्हें मानद डी. लिट प्रदान करने की गुजारिश की थी।

26 सितंबंर 1997 के ‘‘सान्ध्य समीक्षक’’ में पुनः तत्कालीन कुलपति डा. आर. के. सिंह को मानद डी. लिट. की घोषणा की याद दिलाई गई थी अंचल के प्रसिद्ध साहित्यकार डा. विमल पाठक ने कहा था पं. शेषनाथ शर्मा ‘शील’ का सम्मान अंचल का सम्मान होगा अतः शीघ्रतिशीघ्र उनके सम्मान का आयोजन किया जाना चाहिये। खेद है कि अब तक वह तथाकथित घोषणा साकार नहीं हो पाई हैं।

साहित्य ही कालजयी नहीं होता, साहित्यकार भी कालजयी होता है। आज शील जी हमारे बीच दैहिक रूप से उपस्थित नहीं है पर उनकी यशोकाया तो चिरंजीवी है अमर है।

इत्यम्

विद्यानगर, ज्येष्ठ शुक्ल षष्ठी, वि. संवत 2063

डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा
अध्यक्ष, छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य परिषद, बिलासपुर
दूरभाष-07752-223024

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