अभी इस ब्‍लॉग में कविता लता (काव्‍य संग्रह)प्रकाशित है, हम धीरे धीरे शील जी की अन्‍य रचनायें यहॉं प्रस्‍तुत करने का प्रयास करेंगें.

अंतिम किरण

आज इन अनुभूतियों की बाढ़ सी क्यों आ रही है ?
ज्योति की अंतिम किरण भी हाय रे ! जब जा रही है।
उधर तम में-
आ रहा है-झूलता मेरा भविष्यत्
या कि मेरी ही निराशा
अखिल जग में छा रही है ?
ज्योति की अंतिम किरण जब जा रही है।
इधर तन की शक्तियॉं, होने लगी क्रमशः तिरोहित
प्राण विनियोजित हुआ है, चिर महानिष्क्रमण के हित।
नयन जब मुंदने लगे है, छुट सब साथी रहे हैं
सान्त-संपादनकरो तुम आत्मयज्ञ
सखे ! पुरोहित !
ज्योति की अंतिम किरण जब जा रही है।
पाप अपनी ही घृणा से, लाज से खुद गल रहा है।
ताप निज उताप के आधिक्य से ही जल रहा है।
गीत में छन्दित रहे साध से
निःसीम मचला,
मुक्ति तज कर विविध रूपों में
अरूप बिखर रहा है।
ज्योति की अंतिम किरण जब जा रही है।
अलस यौवन भार कातर, मंदकम्पित कंटकित तन
भुजभरित उर में छिपाकर, मत करो यो मदिर चुम्बन।
युग युगों की सुप्त क्‍वांरी
वासनाओं को न छेड़ा।
दुःख जर्जर हृदय क्या
सहला रहे हो प्रणय के धन ?
ज्योति की अंतिम किरण जब जा रही है।
वक्ष पर पीड़ित मधुर प्रस्पर्श अनुभव कर रहा हूँ
धड़कनों के ताल में निःश्वास के स्वर सुन रहा हूँ ।
आज तक तो ओ निठुर !
ऐसा कभी होता नहीं था
निविड़तम उपलब्धि है यह
या खुदी में खो रहा हूँ ।
ज्योति की अंतिम किरण जब जा रही है।
प्राण पर सिहरन, पुलक तन में
नया उन्माद मन में, एक मस्ती छा रही है।
चिर पिपासाकुल नयन में
छा गया अनवद्य तम, दिखता नहीं
अनुमान है यह, मधुर मदिर प्रमाद छाया
जगत के प्रति कण-विककण में।
ज्योंति की अंतिम किरण जब जा रही है।
बैठ लो कुछ देर,
जन्म जन्मों का थका विश्राम कर लूं।
ओढ़ लें तम की चदरिया
प्यारकर लूं, प्यार पा लूं।
पुलकमिस
तन की शिराओं के, गये हैं टूट बंधन
चरण का दे दो सहारा
आज उस पर शीष धर लूं।
ज्योति की अंतिम किरण भी हाय रे !
जब जा रही है।
आज इन अनुभूतियों की बाढ़ सी क्यो आ रही है।

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