1.
तिलक छाप माला मुद्रा है
चादर भी है राम नाम की
मेरी दुकार बहुत चलती है।
पाप मुक्ति की, स्वर्ग गमन की
लाइसेंस, परमिट देता हूँ ।
लोग मुझे पण्डित कहते हैं
इसीलिये, छिपकर पीता हूँ ।
2.
बंगला, बाग, कार, बढ़िया
कुछ कमी नहीं थी
लड़ते नहीं चुनाव
लड़ाने में वे पटु थे।
खादी का परिधान भव्य
टोपी नौका सी
घर में काम नहीं था
फिर भी बड़े व्यस्त थे
नई नियुक्ति, पदोन्नित आदि
करा देने में सिद्ध हस्त थे।
नेता थे, पर लोग उन्हें
चम्मच कहते थे
माल उड़ाना, खाना पीना
सब छिपकर करते थे।
3.
मेरा अपर मित्र दादा है,
वैसे बहुत सरल सादा है।
खुले आम खाता पीता है।
जीवन से लड़कर जीता है।
कम हैं। ऐसे लोग
कि जो उससे डरते है।
दीन-दुखी उससे डरते है
दीन-दुखी उसकी तरफ
दम भरते हैं।
लिया एक से दस में बांटा
नीति यही उसके जीवन की।
बड़ा गरम हैं, जरा नरम है
बड़ा चुस्त है, जरा सुस्त है।
बहस अगर करने बैठा
तो लगता है, यही दुरूस्त है।
हम तीनों के व्यसन-शील में
थी विभिन्नता
एक घाट पानी पीते थे
बस इतनी सी थी अभिन्नता।
इस प्रकार हम तीनों में थी
बड़ी मित्रता।
एक रात
जब गांव सो गया
आहिसते उसने दस्तक दी।
खुलते ही दरवाजा
जैसे छिपना हो
भीतर घुस आया।
उसने स्वयं लगाई सांकल
बोला ‘‘पंडित भूख लगी है।’’
है कुछ घर में देखो
भाई जल्दी करना।
उसे देखकर कांप गया
मैं भय से विकल
पर उपाय कुछ अन्य नहीं था।
बचे खुचे, कुछ रूखे फुल्के
चटनी, पानी रखा सामने।
लाकर मैंने जड़ मशीनवत्।
इसे बैठकर खांउ।
इतना समय नहीं है
पुड़िया एक बना दो
क्या अखबार नहीं है ?
खाते खाते ही भगना है।
‘‘मैंने मार दिया चम्मच को
अब झुठला न सकेगा सच को
मुझे भले ही होवे फांसी
या मेरी स्मृति में रोवेगी।’’
चला गया वह पुड़िया लेकर।
भीतर से रोता हूँ
जैसे फुलकों को मिस
सब कुछ देकर
बदल गया हूँ , सोच रहा हूँ
सचमुच हम तीनों डाकू थे।
तिलक छाप माला मुद्रा है
चादर भी है राम नाम की
मेरी दुकार बहुत चलती है।
पाप मुक्ति की, स्वर्ग गमन की
लाइसेंस, परमिट देता हूँ ।
लोग मुझे पण्डित कहते हैं
इसीलिये, छिपकर पीता हूँ ।
2.
बंगला, बाग, कार, बढ़िया
कुछ कमी नहीं थी
लड़ते नहीं चुनाव
लड़ाने में वे पटु थे।
खादी का परिधान भव्य
टोपी नौका सी
घर में काम नहीं था
फिर भी बड़े व्यस्त थे
नई नियुक्ति, पदोन्नित आदि
करा देने में सिद्ध हस्त थे।
नेता थे, पर लोग उन्हें
चम्मच कहते थे
माल उड़ाना, खाना पीना
सब छिपकर करते थे।
3.
मेरा अपर मित्र दादा है,
वैसे बहुत सरल सादा है।
खुले आम खाता पीता है।
जीवन से लड़कर जीता है।
कम हैं। ऐसे लोग
कि जो उससे डरते है।
दीन-दुखी उससे डरते है
दीन-दुखी उसकी तरफ
दम भरते हैं।
लिया एक से दस में बांटा
नीति यही उसके जीवन की।
बड़ा गरम हैं, जरा नरम है
बड़ा चुस्त है, जरा सुस्त है।
बहस अगर करने बैठा
तो लगता है, यही दुरूस्त है।
हम तीनों के व्यसन-शील में
थी विभिन्नता
एक घाट पानी पीते थे
बस इतनी सी थी अभिन्नता।
इस प्रकार हम तीनों में थी
बड़ी मित्रता।
एक रात
जब गांव सो गया
आहिसते उसने दस्तक दी।
खुलते ही दरवाजा
जैसे छिपना हो
भीतर घुस आया।
उसने स्वयं लगाई सांकल
बोला ‘‘पंडित भूख लगी है।’’
है कुछ घर में देखो
भाई जल्दी करना।
उसे देखकर कांप गया
मैं भय से विकल
पर उपाय कुछ अन्य नहीं था।
बचे खुचे, कुछ रूखे फुल्के
चटनी, पानी रखा सामने।
लाकर मैंने जड़ मशीनवत्।
इसे बैठकर खांउ।
इतना समय नहीं है
पुड़िया एक बना दो
क्या अखबार नहीं है ?
खाते खाते ही भगना है।
‘‘मैंने मार दिया चम्मच को
अब झुठला न सकेगा सच को
मुझे भले ही होवे फांसी
या मेरी स्मृति में रोवेगी।’’
चला गया वह पुड़िया लेकर।
भीतर से रोता हूँ
जैसे फुलकों को मिस
सब कुछ देकर
बदल गया हूँ , सोच रहा हूँ
सचमुच हम तीनों डाकू थे।
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