अभी इस ब्‍लॉग में कविता लता (काव्‍य संग्रह)प्रकाशित है, हम धीरे धीरे शील जी की अन्‍य रचनायें यहॉं प्रस्‍तुत करने का प्रयास करेंगें.

अमा का अंधेरा

अभी भी अमा का अंधेरा घना है
उषा की किरण का विहंसना मना है।
सिसकता भटकता पवन रात भर था
मगर किसलिये-हाय ! यह कौन जाने ?
बहुत रो चुका पर गगन के रूदन का
कहॉं अंत होगा इसे कौन जाने ?
बहे पर कहे मत, भरे पर झरे मत
वही वेदना है अपर है बहाने।
उपस्थिति व्यथा की प्रखर धार में है
लिये जा रही कूल पाना मना है
अंधेरा घना है. . . .
कभी चीखना उल्लुओं का भयंकर
कभी मंघ गर्जन, कभी श्वान का स्वर
कभी भूख से अर्ध निद्रित सुवन का
सिसकना नहीं सह सका रो रहा घर।
नहीं नींद आई तभी गीत जागा
मगर दीप ने साथ छोड़ा लजाकर।
बहल जाये मन गीत से, पर किसी ने
कहा इस तरह भी बहलना मना है
अंधेरा घना है. . . .
कई आस्थायें, बनी और बदली
विचारक नयी पोथियां सी रहा है।
विषमता अभावादि से त्रस्त मानव
सुधा चाहता था, गरल पी रहा है।
दुखी हूँ कि अनुभूतियां जागती हैं
विवश हूँ कि मेरा मनुज जी रहा है
गलत राह कोई नहीं धर सकूंगा
कि जीना मना है मरण भी मना है।
अंधेरा घना है. . . .

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