अभी इस ब्‍लॉग में कविता लता (काव्‍य संग्रह)प्रकाशित है, हम धीरे धीरे शील जी की अन्‍य रचनायें यहॉं प्रस्‍तुत करने का प्रयास करेंगें.

विजन का सुमन

विजन का सुमन हूँ , पुलिन पर खिला हूँ
कि जनजाति की यह हवा मत सताये।
कि अहसान मुझ पर मनुज का नहीं है
पथिक की थकन किंतु भरसक हरूंगा।
धरा उर्वरा के हृदय ने दुलारा
प्रकृति ने संवारा, खिला कल झरूंगा।
पंखरियां रसा के चरण पर झरेंगी
प्रकुति को मधुर गंध का दान दूंगा।
मधुप के लिये मुक्त रस कोष मेरा
कि तितली समुद बैठकर स्पर्श पाये।
हवा मत सताये. . . .
विषम-पाप-विष से भरी है गरम है,
बड़ी ढीठ है, शोख है, बेहया है।
कि मकरंद सारा बिखर जायेगा, हॉं
किसी के लिये जो संजोया गया है।
प्रणय की कहानी बहुत है पुरानी
प्रणय किन्तु अब भी नया का नया है।
कभी तार जिसका उतरता नहीं है
चढ़े साज को हाय ! मत छेड़ जाये
हवा मत सताये. . . .
असह ताप है या कि वर्षा प्रखर है,
कभी शीत से तन गला जा रहा है।
कभी आंधियां छेड़ती, मोड़ती है,
इसी भांति जीवन, चला जा रहा है।
सुखी हूँ कि लघु में अलघु है प्रकाशित,
महत का पुलक, स्पर्श तन पा रहा है।
वही रूप-रस-गंध विकसित हुआ है
मधुर हास उसका कहीं खो न जाये
हवा मत सताये. . . .

No comments:

Post a Comment