अभी इस ब्‍लॉग में कविता लता (काव्‍य संग्रह)प्रकाशित है, हम धीरे धीरे शील जी की अन्‍य रचनायें यहॉं प्रस्‍तुत करने का प्रयास करेंगें.

निषेध

कुछ मन की बातें कहने दो !
सुरधनु पर चढ़कर अनायास
जो नभ पथ में करती विलास
जो है अनादि की सष्टि आदि
जो है अरूप का मन्द हास।
वह रूप तुम्हारा रहने दो. . .
जो नभ को कहता है नश्वर
जो बांध रहा है घर ऊपर
उसको यह रूप भले प्रिय हो
भोले कवि का सब कुछ भू-पर
उसको जग-जीवी रहने दो।
झिलमिल तारों की प्लेटों में
तुम किन्हें खिलाया करती हो।
क्या भूख वहां भी लगती है
या भरितों को ही भरती हो।
यह नीति तुम्हारी रहने दो. . .
नीली उडुखचित चदरिया के
घूँघट से वो तेरा विलास,
फिर सुरभित उपवन में दीखा
तेरा मुकुलांकित मन्द हास।
अब छिपना छलना रहने दो. . .
हॉं बंद किये हैं नयन क्योंकि
सपनों में भीतर आती हो
प्राणों की वीणा पर रानी
मोहक संगीत सुनाती हो।
यह स्वर गंगा ही बहने दो. . .
घर बंद किया, लिखने बैठा
कब चुचपके से आ जाती हो
मैं मन की कब कह पाता हूँ ?
यह रीति तुम्हारी रहने दो
कुछ मन की बातें कहने दो. . .

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