अभी इस ब्‍लॉग में कविता लता (काव्‍य संग्रह)प्रकाशित है, हम धीरे धीरे शील जी की अन्‍य रचनायें यहॉं प्रस्‍तुत करने का प्रयास करेंगें.

शारदीय रजनी

शरद की विभावरी न बीत जाय बावरी
पाल खोल दे अरी ! कि बह चले उधर तरी।
जहॉं न चंद्र सूर्य हो, परन्तु तम न पल सके
कि द्वैत जागता रहे, परन्तु भ्रम न छल सके।
और छांहग्राहिणी वसुंधरा, स्वयं वरा
चिर सुहागिनी अभुग्न ही रहे यहीं धरी।
पाल खोल दे अरी. . . .
जहॉं विराम हीन गति, न भ्रान्ति दे, न श्री हरे
जहॉं प्रसुप्ति भी महान् को, न तुच्छ सा करे।
हो मिलन अबाध औ, विरह न सांस ले सके
राग की विराग की, जले न आग नागरी।
पाल खोल दे अरी. . . .
सुन सुन कर, तव पुकार प्राण खिंचे दुर्निवार
जीचन की आरती, परन्तु बुझी बार बार।
आज तुम मिली, समीर-धीर मदिर रैन है
शुभ घड़ी प्रयाण की न बीत जाय हाय री।
पाल खोल दे अरी. . . .
हर पुकार में तेरे अंतर का प्यार मिला
नवोन्मेष, नवगति-यति, नव स्वर संचार मिला।
अग जग में खोजते तुम्हें ही तो फिरते थे
अश्रुसिकत आकुल आवाहन के गीत री।
पाल खोल दे अरी. . . .
वीणा लो, तुम स्वर दो, जी भर कर गाने दो
छोड़ो पतवार, मुक्त तरणी, बह जाने दो।
सागर की गोद और अंबर की छाह में
हे चिरसंगिनी ! जागे युग युग की चाह री।
पाल खोल दे अरी. . . . 

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