अभी इस ब्‍लॉग में कविता लता (काव्‍य संग्रह)प्रकाशित है, हम धीरे धीरे शील जी की अन्‍य रचनायें यहॉं प्रस्‍तुत करने का प्रयास करेंगें.

पथ का प्रसून

तुम बढ़ो, बढ़े चलो. . .
दर्प दीप्त भव्य भाल
झुक न जाय मौलि माल।
लक्ष्य तुंग श्रृंग पर
चढ़े चलो, बढ़े चलो
देश को समाज को संवारते चलो. . . .
दल बने कि
बल बंटा
कि एक सूत्रता गई
सुख, नहीं मिला
मिली परन्तु तिक्तता नई।
इस स्वराज्य को सखे ! सुधारते चलो. . . .
कल स्वतंत्रता मिली,
कि शिथिलता समा गई
त्याग वीर आर्य की अकाम साधना ागई
कर्मवीर ! कर्म निज निबाहते चलो. . . .
सर्वग्रासिनी दरिद्रता
अभाव ग्रस्तता
हिन्स्र धनिक की अतीव लोभ पूर्ण व्यस्तता
तुम दयालु हो, इधर निहारते चलो. . . .
रो रही है द्रौपदी
सिसक रही है पद्यिनी
हाट बाट में अनेक
लुट रही है कामिनी
तुम इन्हें उबारते, दुलारते चलो. . . .
बाजुयें शिथिल हुई
कि हन्त धर्म सो गया ?
या कि आर्य महाप्राण
प्राणहीन हो गया
देश को करो प्रबुद्ध प्राण बांटते चलो. . . .
हूँ झरा हुआ प्रसून
वीर कण्ठ हार से
राह में पड़ा हुआ
पुकार रहा प्यार से
शीश पर धरो चरण
गत व्यथः किये चलो
तुम बढ़ो बढ़े चलो. . . .
लक्ष्य तुंग श्रृंग पर चढ़े चलो, बढ़े चलो. . . .

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