अभी इस ब्‍लॉग में कविता लता (काव्‍य संग्रह)प्रकाशित है, हम धीरे धीरे शील जी की अन्‍य रचनायें यहॉं प्रस्‍तुत करने का प्रयास करेंगें.

तीन तारे

ओ गगन नील के सुमन तीन।
तुम असित अलक जल बीचि-बीच
 पुष्पित सित-कण-सम थे अकीच।
अपदस्थ पड़े हो यथा नीच
वह क्यों लेती फिर नहीं बीन।
असिताभिसारिका तुम्हें छोड़
जैसे सब नाता नेह तोड़।
तुमसे कर शोभित गगन क्रोड़
या बना गई वह खिन्न दीन।
वेदना अमित कर पार आह !
किसकी स्वर सरिता का प्रवाह
आया मैं बहता, थी न चाह।
क्या हुआ राग ? क्या हुई बीन।
मरू भूमि बीच आ पड़ी धार
जिसका न दीखता कहीं पार।
तब से यह जीवन हुआ भार
जब वह सिकता में हुई लीन।
उत्तप्त त्रहिन में मन शरीर
दिन में, निशि में जैसे करीर।
कण्टक-शैया पर हो अधीर
मेरा परिचय - - मैं तृषित मीन।
ओ सुहृद ! न हिम जल कण- असार
वे थे जिनसे थी बनी धार।
अवनी पर कर दुःख-रात्रि पार
कवि आंसू बरसे, ओस न थी।
उस वासक सज्जा का अमोल
उपर बुलाक का रहा डोल।
मोती-नीचे दो दशन लाल
तारे क्यों कहते ? इन्हें दीन।
चिर अभिलषिता ऊपर नभ पर
मैं पंख हीन हारिल भू पर।
इतनी दूरी-इतना अंतर
यह रीति मिलान की सुनी थी न।
ओ गगन नील के सुमन तीन. . . . . 

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