अभी इस ब्‍लॉग में कविता लता (काव्‍य संग्रह)प्रकाशित है, हम धीरे धीरे शील जी की अन्‍य रचनायें यहॉं प्रस्‍तुत करने का प्रयास करेंगें.

मिल

दुखी मन की हड्डी से
भूखे श्रमिकों के शोणित से,
पैसों का इतिहास लिखा है
मिल की ऊंची दीवारों पर।
वह मजदूर फटी चिन्दी से
कैसे अपनी लाज छिपाये ?
तुम हंस लो, हॉं घृणा करो
वह जीवित ही मरकर जीता है।
खुद भूखा भोजन देता है,
नंगा है कपड़े देता है।
आशुतोष -शंकर सा
जग को, दुख सहकर भी सुख देता है।
पर उन आंखों की कविता में
क्या है ? किसने कहॉं कहॉं पढ़ा कब ?
व्यथित-मौन पीड़ा देखी कब ?
रक्तहीन हड्डी का ढांचा
किसी तरह कुछ चल लेता है।
फिर भी उसको ग्यारह घण्टे
मिल में सब सहना पड़ता है।
रवि-किरणों से ज्वाला झरती
लाल तवे सी जलती धरती
मिल, सजीव-मृत मजदूरों की
एक धधकती हुई चिता है।
व्यथित शरीर व्यथित मन लेकर
मिल मालिक की ठोकर खाता
जग की कटु प्रताड़ना सहकर
जीता है मजदूर अभागा।
ओ ! खस की टट्टी के अन्दर रहकर
सुख से सोने वालों।
भला कभी तुमने पूछा है।
क्यों रे ! तू क्यों रोता है ?
जीर्ण शीर्ण तन से दधीचि की
केवल कुछ हड्डी थी बाकी
वह भी तुम पूंजी पतियों ने ले ली,
स्वीय अमरता साधी।
मार रहे हो, कहते हो, गा
छीन रहे हो कहते हो खा।
क्या खाये क्या गाये काई
क्या मन को समझाये कोई ?
मिल सजीव मृत मजदूरों की
एक धधकती हुई चिता है
शोषण का इतिहास लिखा है
जिसकी नंगी दीवारों पर. . . ।

‘‘पूरी रंगत के साथ’’ काव्य संकलन में संकलित

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