अभी इस ब्‍लॉग में कविता लता (काव्‍य संग्रह)प्रकाशित है, हम धीरे धीरे शील जी की अन्‍य रचनायें यहॉं प्रस्‍तुत करने का प्रयास करेंगें.

पत्र

मेरे प्रिय बंधु !
नमन मन से,
तन से असीस
पत्र मिला।
प्रीति भरा ताना है
तुम तथैव मित्रों का बार-बार
‘‘हंसने का नाम नहीं
रोना ही जाना है’’।
होगा सच
कारण कुछ,
सोच रहा मन ही मन।
कुछ दिन, तुम पर
सारे जग पर हसता था मैं
सोचता रहा कि
सब कुछ
क्षुद्र तथा तुच्छ है।
फिर
कुछ दिन
हंसता रहा
इस मन के हाल पर
बेढ़ेगी चाल पर जो
जहां तहां, लिये लिये
फिरता था मुझको।
क्या करूँ ?
कि आती नहीं
हंसी किसी बात पर
हंसने के मूल में
नवीनता, विचित्रता
जो होती है
अंतर को नहीं गुदगुदाती है।
अब तो
कहीं, कोई कुछ
दिखता नहीं नया।
भ्रम ही नवीनता है
सत्य तो पुराना है।
भ्रम में असत्यता में
भूला यदि मन है तो,
लगता हैं सुख मिला
किन्तु सब मिथ्या है।
चाहो तो एक क्षण
झूठ पर हंसा लो मुझे
किन्तु यह भी अभिनय ही होगा
विवश हूँ बंधु।
सत्य में जो चिरता,
नवीनता है, शिवता है,
उसका आनंद
कभी देगें, श्री कृष्णचंद्र।
तुमसे कुछ पहिले
यदि,
मैंने यह धन पाया
मन के मीत हो तुम
कहॉं लिये भटकूंगा ?
रख लेना, तुम ही।
दोनों फिर हंस लेगें
कहॉं दुखः दैन्य, भ्रांति ?
उस दिन के लिये
सखा !
जियो,
ऊँ शांतिः शांतिः शांतिः

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